Friday 15 April 2016

इंसानियत
"क्या दुनिया बदल रही है बहुत तेज़ी से?", हुई मुझे यह जिज्ञासा,
ढूंढने पर पाया, वाकई बदल रही है वेशभूषा, बदल रही है भाषा,
वक्त के साथ साथ पूरी दुनिया वाकई बदल रही है,
लेकिन वक़्त से भी तेज़ बदल रही है इंसानियत की परिभाषा।

वक़्त था एक जब शिक्षा ना विज्ञान की थी, ना गणित की थी,
भाषा थी इंसानियत की, ना अंग्रेजी की थी, ना संस्कृत की थी,
दधिचि-शिवि करते थे दान अपने हाड़मांस,
वो वक़्त था जब सर्वोच्च शिक्षा पराये-हित की थी।

गलतियां हमारी ढूंढने पर, मन में एक कौतुहल सा मचता है,
भला MBA/B.Tech की शिक्षा में इंसानियत का विषय कहाँ जंचता है?
अगर मासूम दबते है लालच के पुलों तले,
तो इस बनावटी शिक्षा का अर्थ भी कहाँ बचता है?
वादियों और नदियों को हासिल करने, बहाते है हम खून की धार,
इंसानो के इस जंग में, इंसानियत निरन्तर जाती है हार,
खैर क्या बात करूँ इंसानियत की इस दुनिया में,
जिस दुनिया में "रक्षा" के लिए बनते है परमाणु हथियार।

आखिर जो भी हो, शर्म से इंसानो को ही आँखें मुंदनी पड़ती है,
जब सात अरब इंसानो के बीच इंसानियत ढूंढनी पड़ती है,
इस दुनिया के आगोश में जब भी दम तोड़ती है कोई "निर्भया",
तब हज़ारों इंसानो के बीच इंसानियत हज़ारों मौत मरती है।
                                                              - विवेक टिबड़ेवाल

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