Wednesday, 20 April 2016

धूल 

जब से मैंने गुड़गांव में कदम रख है इसकी धूल से मैं परेशां हूँ, लगता है कि धूल के महासागर में आ गयी हूँ ।पर क्या पता था कि इस धूल से जितना दूर जाने की कोशिश करूँगी उतना ही ये मेरे चारों तरफ नजर आएगी इसीलिए अपनी अलमारी में कुछ कपड़े जस के तस रखे हैं अब उन्हें कभी पहन नहीं पाती क्योंकि उनके गंदे होने का डर हमेशा बन रहता है। पर कुछ ख़ास मौके होते हैं और ऐसे मौकों पर मेरा कपड़ों को लेकर उत्साह कुछ अजीब सा ही रहा है जैसे कि नौकरी के इंटरव्यू में जाना हो तो क्या सही लगेगा, और क्या पता था कि इतनी ही तैयारी से अब मैं सरकारी स्कूलों में जाऊंगी बच्चों का दाखिला कराने !

सफ़ेद सूट और सलीके से कढ़े बाल, एक सभ्य महिला दिखने के लिए इतना काफ़ी है। इसी सोच विचार में कि आज़ तो सारे कागज़ भी हैं, अपने साथ चल रहे बच्चे की ओर देख कर मुस्कुरा देती हूँ पर बच्चे का ध्यान मेरी तरफ नहीं है, वो तो स्कूल के गेट से अंदर जाने को बेताब है ।

स्कूल की जमींन कच्ची है और उस पर गर्मी का मौसम, धूल उड़ उड़ कर मेरे कदम चूम रही है। कुछ मध्यम वर्गीय महिलाओं से मेरा वास्ता पड़ने लग जाता है जो लगता है कि बस मेरे ही इंतजार में बैठीं थीं। उनमे कौन मुख्यधापिका है पता नहीं पर उनमेंसे एक, मेरे अभिवादन पर  कान के पर्दे फाड़ देने वाली आवाज में चिल्ला कर अपने दाएं हाथ से मुझे बैठने का  इशारा करती हैं । मैं धूल से लिपी एक कुर्सी पर ना, ना  कहते हुए भी बैठ जाती हूँ। " तो इस बच्चे की तो उम्र ज्यादा  हो गयी है और बड़ी क्लास के लायक इसे कुछ आता नहीं"। अपने अनुभवों से मैं जानती हूँ कि कोई भी दलील बेकार ही जाएगी फिर भी विनती वाली मुद्रा में एक हाथ बच्चे के सिर पर रख कर बस इतना ही कहती हूँ देख लीजिये मैडम, ये बच्चा ऐसे तो कभी स्कूल नहीं जा पाएगा ।

मैडम की मुद्रा में कोई बदलाव का चिन्ह नहीं है, " तो इन्हें घर पर पढ़ाओ और जब इसकी उम्र वाली क्लास के लायक हो जायेगा तब ले आना, कर लेंगे एडमिशन"। सुझावों के वार मुझ पर होने लगे हैं, सरकार के नियमों को दोष दूँ या खुद को, मेरे मन में गुस्से का तूफ़ान चल रहा है जो बाहर नहीं आ सकता पर धूल का एक अंधड़ कमरे में आ चुका है।

गर्मी की धूप जो सुबह पर हावी हो गयी है वो माथे पर पसीने के बुलबुले बनाने लगी है, पता नहीं कैसा पसीना है ये जो आज सुबह से बहाये जा रही हूँ।

कहने सुनने में बहुत समय ख़राब कर लिया है और अब स्कूल के दरवाजे के बाहर मैं खड़ी हूँ, जैसे निष्कासित कर दी गई हूँ । झुक कर मैं अपने कदमों की इस धूल से छुटकारा पाने की चेष्टा में हूँ,  इनका यूं लिपट कर छमायाचन मुझे स्वीकार नहीं ! गुस्सा ज्यादा हूँ या निराश, पता नहीं । "तो मैडम मेरा दाखिला हो जायेगा ना?", कैसे बताऊँ इस बच्चे को कि तेरा इस स्कूल की धूल से कोई सरोकार नहीं।

-मीनाक्षी

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