Tuesday, 30 June 2015

वो बच्चे मेरे नहीं हैं

डोर (DoaR)  में हम  नए- नए तरीकों पर विचार करते रहते हैं और ऐसा ही एक विचार का उदय हुआ पर ये बात है मेरे उस विचार तक जाने की और वहां से एक और विचार ले कर लौट आने की भी ।
शुरुआत से शुरू करें तो हम अपने सभी सभी बच्चों के साथ हर रविवार कोई न कोई आयोजन करते हैं तो इस बार राहगीरी में ले जाने का उम्दा ख्याल मयंक ने दे डाला और इस तरह हम सुशांत लोक के राहगीरी में ३४ बच्चों के साथ पहुँच गए जीवन के छोटे छोटे पलों का आन्नद उठाने ।
एक उच्च माध्यम वर्गीय कॉलोनी के पायदान पर इतने सारे गरीब बच्चे मुझे पहली बार नज़र आ रहे थे पर ये अनगिनत सिर "हमारे" ही बच्चे नहीं थे परन्तु  आस पास के गरीब बच्चों  का  भी हुजूम
था जो जीवन के इन छोटे छोटे आनंदों को जीने आया था । राहगीरी इन्हीं  बच्चों के लिए सबसे अधिक मायने रखती  है क्योंकि ये सड़कें इन्हीं से तो  छीनी गयी हैं । इन विचारों की उथल पुथल के बीच मैं सड़क पर पसरी बच्चों की  भीड़  को देख रही थी कि धीरज ने बताया, "साइकिल ले ली हैं , कुल १० हैं, समय है ३० मिनट तो देखो बराबर सभी को  मौका मिल जाए"।
बच्चे साइकिल लेने के लिए होड मचाने लगे, और मिनटों में सारी साइकल्स बाँट गई पर अभी २२  बच्चे बाकी थे, बेसब्र पर करें तो क्या करें । इन्हीं के बीच एक लड़का जिसके पैरों में चप्पल नहीं थी।, बेतरतीब रूखे बाल और मैले कपडे गवाही दे रहे थे की वो भी इन्हीं गरीबों में से एक है, मेरे हाथ को  हलके से पकड़ कर बोला, मैडम, "मुझे भी साइकिल दे दो", मैं अपने DoaR के बच्चों को पहचानती थी और अभी २२ बच्चे बाकी थे, कैसे देती मौका उसे , वो भी  तब जब ३० मिनट का अल्टीमेटम  दिव्य ने दुबारा याद दिलाया था । पहले वाले बच्चे वापिस आ गए और बच्चों की दूसरी खेप चली गई । मेरे आस पास अब कई ऐसे चेहरे नज़र आने लगे  जो मेरे हाथ को पकड़ अपनी तरफ ध्यान आकर्षित करने लगे, मेरे दिमाग और दिल के बीच का संवाद बंद हो गया था, शायद मैं सीमायें बनाने लग गई थी , तेरे -मेरे  और अपने -पराये की, । नहीं तो क्या कारण था कि कुछ को मैं  अपना और दूसरों को पराया समझती और ये तो कभी न कहती , "बच्चों  तुम हमारे नहीं हो , डोंट टच मी, मैं  साइकिल नहीं दे सकती "। 'वो' बच्चे समझ गए कि वो मेरे नहीं थे ।
एक बार और ये अहसास उन्हें दिलाया गया है कि दुनिया की  सबसे छोटी खुशी भी वो नहीं दे पाएंगे जो खुद को खुशहाल, सभ्य और सामर्थ्यवान होने का  दावा करते हैं।

इंटरनेट के दौर में ज्ञान भी ऑनलाइन मिल जाता है जिन्हे हम  समाज के भलाई के लिए नहीं एकमात्र अपनी भलाई  के लिए लिखा गया है ऐसा मानकर समझते  हुए पढ़ते हैं  इसलिए हमारे सारे प्रयास अंत में संकीर्ण  हो जाते हैं।
हम केवल कर्तव्यों को निभाते हुए उसके पूरा होने की मूलभूत व्यवस्था के साथ समझौता कर लेते हैं । ये कहें तो गलत न होगा कि ये सीखते हुए ही हम बड़े हुए हैं - ये मेरा नहीं है, ये मेरी जिम्मेदारी नहीं है, ये मेरी प्राथमिकता नहीं है, ये समय की मांग नहीं है, ज्यादा फायदे वाली बात करो, बड़ा सोचो और दिल से नहीं दिमाग से सोचो।
क्या बड़ा सोचने वाला दिमाग इतना संकीर्ण सोचने लगा है क्योंकि ये भी गरीब हो गया है ?

writer_Meenakshi Singh
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