Tuesday 30 June 2015

खोज़ अभी भी अधूरी है


आजकल एक ही धुन सवार रहती है कि  कैसे भी हो एक घर मिल जाये, कोई भी जगह मिल जाये जहाँ मैं एक
लाइब्रेरी खोल सकूँ । तो कई बार कुछ बंद दरवाजे खटखटाने लगती हूँ और जवाब न में ही मिलता है । पिछले हफ्ते ही की बात है एक घर पहुंची क्योंकि उनका बेसमेंट खाली था, जिन महाशय से बात की वो गृहस्वामी थे और बताने लगे की घर की छत पर भी एक कमरा खाली पड़ा है तो वो लें क्योकि उसके साथ शौचालय की भी व्यवस्था है। मेरा मन मयूर नाचने लगा कि ये सपना ऐसे सच होगा पता न था, पर मेरा दुर्भाग्य कह लें या फिर समय का तकाजा, धीरे धीरे घर के मालिक मालकिन आपस में समझने समझाने लगे कि किन नीचे तबके के लोगों के साथ मैं काम कर रही हूँ, ये सारे बांग्लादेशी हैं, जैसे ही मैंने कहा ज्यादातर हिन्दू हैं तो बोले अरे इनकी लड़कियां भाग जाती हैं लड़कों के साथ स्कूल जाने का बहाना करके।  ऐसा कह कर उनकी आँखों की  चमक और बढ़ गयी जब देखा कि मैं जवाब नहीं दे रही । वो क्या समझ पाएंगे कि मैं चुप खड़े हो कर उनका समाज की जिम्मेदारियों से दूर भागना देख रही थी जो खुद के सम्मानित नागरिक होने का दम भरते हैं ।

वो एक पर दूसरा और तीसरा किस्सा सुनाये जा रहे थे कि  कैसे कामवालियां घर का सामान चुराती हैं , कैसे इनके बच्चे चोरी करते हैं, कैसे ये लड़कियां छेड़ते हैं, हमारे घरों में  तांकझांक करते हैं, अश्लील हरकतें करते हैं, इत्यादि  इत्यादि। मैं बहुत ही संतुलित तरीक़े से अपने लक्ष्य को ध्यान करते हुए बार-बार बात को पटरी पर   लाने का प्रयत्न करते हुए उदाहरण दे रही थी , कभी आई आई टी में चयनित बच्चों की तरफ उनका ध्यान आकर्षित करने की कोशिश करती  कभी अपने DoaR के होनहार बच्चों का हवाला देती । रात के १०:३० यूं ही सड़क पर बात करते बज गए और अब वो मुझसे पूछने लगे कि क्यों मैं अपना समय बर्बाद कर रही हूँ ? लगा अब खरी-खरी बात करने का समय है, तो मैंने जवाब देने शुरू किये, ये जिंदगी खुद के लिए भी हम सही तरीके से नहीं जीते, पढ़ाई करते हैं पर ज्ञान नहीं ले पाते, जिंदगी काट लेते हैं हम, जीते कहाँ हैं ? पर वे बोले, मैडम, बुढ़ापे में करो ये सब काम ! मैं हँसने लगी और बस इतना ही कहा, मैं अपनी उम्र नहीं जानती, पर इतना पता है कि कल का सूरज मेरे हाथ में नहीं पर जो आज मेरे हाथ में है वो मैं नकारना नहीं चाहती और ये है मेरी क़ाबलियत दूसरों की मदद करने की जो कि मुझे सम्पूर्ण बनाती है ।


उन्होंने न कमरा दिया है न बेसमेंट अलबत्ता एक कप चाय पिला दी है और ट्रे में सजा कर अपने मन की कमजोरी मुझसे बाँटने की असफल कोशिश भी की है ।

हालाँकि मौसम खुशगवार है और धीमी फुआरें पढ़ रही हैं  पर मैं इस मौसम की बारिश से ऊपर से और तानों की बारिश से अंदर से भीग गयी हूँ, आज के लिए इतना ही काफी है । मेरे मोबाइल की घंटी मेरे पर्स में घनघनाती है जिसे मैंने जनबूझकर नहीं देखा है, रात के ११ बजे हैं पर मैं बेसब्र हूँ कल का सूरज देखने के लिए, क्योँकि ये खोज़ अभी भी अधूरी है ।

www.donateanhour.org
writer _Meenakshi Singh

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