
शुरुआत से शुरू करें तो हम अपने सभी सभी बच्चों के साथ हर रविवार कोई न कोई आयोजन करते हैं तो इस बार राहगीरी में ले जाने का उम्दा ख्याल मयंक ने दे डाला और इस तरह हम सुशांत लोक के राहगीरी में ३४ बच्चों के साथ पहुँच गए जीवन के छोटे छोटे पलों का आन्नद उठाने ।
एक उच्च माध्यम वर्गीय कॉलोनी के पायदान पर इतने सारे गरीब बच्चे मुझे पहली बार नज़र आ रहे थे पर ये अनगिनत सिर "हमारे" ही बच्चे नहीं थे परन्तु आस पास के गरीब बच्चों का भी हुजूम
था जो जीवन के इन छोटे छोटे आनंदों को जीने आया था । राहगीरी इन्हीं बच्चों के लिए सबसे अधिक मायने रखती है क्योंकि ये सड़कें इन्हीं से तो छीनी गयी हैं । इन विचारों की उथल पुथल के बीच मैं सड़क पर पसरी बच्चों की भीड़ को देख रही थी कि धीरज ने बताया, "साइकिल ले ली हैं , कुल १० हैं, समय है ३० मिनट तो देखो बराबर सभी को मौका मिल जाए"।

एक बार और ये अहसास उन्हें दिलाया गया है कि दुनिया की सबसे छोटी खुशी भी वो नहीं दे पाएंगे जो खुद को खुशहाल, सभ्य और सामर्थ्यवान होने का दावा करते हैं।
इंटरनेट के दौर में ज्ञान भी ऑनलाइन मिल जाता है जिन्हे हम समाज के भलाई के लिए नहीं एकमात्र अपनी भलाई के लिए लिखा गया है ऐसा मानकर समझते हुए पढ़ते हैं इसलिए हमारे सारे प्रयास अंत में संकीर्ण हो जाते हैं।
हम केवल कर्तव्यों को निभाते हुए उसके पूरा होने की मूलभूत व्यवस्था के साथ समझौता कर लेते हैं । ये कहें तो गलत न होगा कि ये सीखते हुए ही हम बड़े हुए हैं - ये मेरा नहीं है, ये मेरी जिम्मेदारी नहीं है, ये मेरी प्राथमिकता नहीं है, ये समय की मांग नहीं है, ज्यादा फायदे वाली बात करो, बड़ा सोचो और दिल से नहीं दिमाग से सोचो।
क्या बड़ा सोचने वाला दिमाग इतना संकीर्ण सोचने लगा है क्योंकि ये भी गरीब हो गया है ?
writer_Meenakshi Singh
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